मझधार बहे कश्ती
बिन माझी सहारे ,
नीले गगन को चीड़े ,
ऊँची-नीची लहर हठाये।
सुनसान जो डंगरिया ,
अंजान जब हो ठिकाने ,
उधर अगर न मिले किनारे
तो क्यूँ तू माझी पुकारे !
रहने दे इसको ,
इसी समय की धारे ,
चारों ओड़ यूं चुप रहे ,
केवल बहती कश्ती अपनी धुन छेड़े।
समुंदर के पार कहां !
ना खोंज इसके उत्तर ,
जिधर चलें मन चलाचल।,
अंत की परवा न किए।
Majdhar bahe kashti
बिन माझी सहारे ,
नीले गगन को चीड़े ,
ऊँची-नीची लहर हठाये।
सुनसान जो डंगरिया ,
अंजान जब हो ठिकाने ,
उधर अगर न मिले किनारे
तो क्यूँ तू माझी पुकारे !
रहने दे इसको ,
इसी समय की धारे ,
चारों ओड़ यूं चुप रहे ,
केवल बहती कश्ती अपनी धुन छेड़े।
समुंदर के पार कहां !
ना खोंज इसके उत्तर ,
जिधर चलें मन चलाचल।,
अंत की परवा न किए।
Majdhar bahe kashti
Bin majhi sahare ,
Neeley gagan ko cheerey ,
Unchi-neechi laher hathayein .
Sun-san jo dagariya ,
Anjaan jab ho thikane ,
Udhar agar naa miley kinare
Toh kyun tu majhi pukare !
Rehne de isko ,
Isi samay ki dhare ,
Charon odh yun chup rahe ,
Keval behti kashti apni dhun chede .
Samundar ke paar kahan !
Naa khoj iske uttar ,
Jidhar chale man chalachal ,
Ant ki parwa naa kiye ....